विश्व कुद्स दिवस पर वरिष्ठ नेता का भाषण

 


विश्व कुद्स दिवस पर वरिष्ठ नेता का भाषण


 


ईश्वर के नाम से जो बड़ा कृपालु और दयावान है।


 


पूरी दुनिया में आप सभी मुसलमान भाइयों और बहनों को सलाम करता हूं, रमज़ान के पवित्र महीने में उनकी उपासनाओं की स्वीकृति की ईश्वर से प्रार्थना करता हूं और उनकी सेवा में ईदे फ़ित्र की बधाई पेश करता हूं और ईश्वरीय आतिथ्य के इस महीने में उपस्थिति की नेमत के लिए ईश्वर का आभार प्रकट करता हूं।


आज क़ुद्स दिवस है। वह दिन जो इमाम ख़ुमैनी की बुद्धिमत्तापूर्ण पहल पर, बैतुल मुक़द्दस और मज़लूम फ़िलिस्तीन के बारे में मुसलमानों की आवाज़ों को एक दूसरे से जोड़ने वाली कड़ी के रूप में निर्धारित किया गया है। इस दिन ने पिछले कई दशकों से इस संबंध में अपनी भूमिका निभाई है और इंशा अल्लाह आगे भी निभाता रहेगा। राष्ट्रों ने क़ुद्स दिवस का स्वागत किया और उसे सबसे बड़े वाजिब व अनिवार्य काम यानी फ़िलिस्तीन की आज़ादी के परचम की तरह सम्मानीय जाना। साम्राज्य व ज़ायोनिज़्म की मुख्य नीति, मुस्लिम समाजों के मन में फ़िलिस्तीन समस्या को ग़ैर अहम बनाना और उसे भुलाने की राह पर डाल देना है। सबसे त्वरित ज़िम्मेदारी, उस विश्वासघात से संघर्ष है जो दुश्मन के राजनैतिक व सांस्कृतिक पिट्ठुओं के हाथों ख़ुद इस्लामी देशों में हो रहा है। सच्चाई यह है कि फ़िलिस्तीन समस्या जितनी बड़ी व अहम समस्या ऐसी चीज़ नहीं है कि जिसे मुसलमान राष्ट्रों का स्वाभिमान, आत्म विश्वास और बढ़ती हुई होशियारी भुलाए जाने की अनुमति दे, चाहे अमरीका व अन्य वर्चस्ववादी और उनके क्षेत्रीय पिछलग्गू अपना सारा पैसा और पूरी ताक़त ही इसके लिए क्यों न झोंक दें।


सबसे पहली बात फ़िलिस्तीन देश पर अवैध क़ब्ज़े और उसमें ज़ायोनी कैंसर के फोड़े के गठन की त्रासदी की बड़ी याद की है। वर्तमान काल के निकट समयों में इंसानी अपराधों में कोई भी अपराध इतना बड़ा और इतना गहरा नहीं है। एक देश पर अवैध क़ब्ज़ा और उसके लोगों को उनके घरों व मातृभूमि से हमेशा के लिए बाहर निकाल देना और वह भी अत्यंत नृशंस जनसंहार, अपराध व खेतियों व पीढ़ियों की तबाही के साथ और इस ऐतिहास अत्याचार को दसियों साल तक जारी रखना, वास्तव में इंसान की पाश्विकता व शैतानियत का एक नया रिकार्ड है।


इस त्रासदी के मुख्य कारक व अपराधी, पश्चिमी सरकारें और उनकी शैतानी नीतियां थीं। जिस दिन पहले विश्व युद्ध की विजयी सरकारें, पश्चिमी एशिया के क्षेत्र यानी उसमानी शासन के अधीन एशियाई क्षेत्रों को युद्ध में हासिल होने वाले सबसे अहम माल के रूप में पेरिस कॉन्फ़्रेंस में आपस में बांट रही थीं, उस दिन उन्हें इस क्षेत्र के केंद्र में अपनी स्थायी उपस्थिति को सुनिश्चित बनाने के लिए एक सुरक्षित ठिकाने की पहले से ज़्यादा ज़रूरत महसूस हुई। ब्रिटेन ने इससे कई साल पहले ही बालफ़ोर योजना पेश करके मार्ग समतल कर दिया था और उसने यहूदी धनवानों की समरसता से ज़ायोनिज़्म के नाम से एक नई चाल को भूमिका निभाने के लिए तैयार कर रखा था।


अब उस चाल को व्यवहारिक बनाने के मार्ग समतल होने चाहिए थे। उन्हीं बरसों में एक के बाद एक भूमिकाएं एक साथ जोड़ दी गईं और अंततः दूसरे विश्व युद्ध के बाद और क्षेत्रीय सरकारों की निश्चेतना व परेशानियों से लाभ उठा कर उन्होंने अपना वार कर दिया और ज़ायोनियों की जाली और राष्ट्र रहित सरकार के अस्तित्व की घोषणा कर दी।


इस वार का निशाना सबसे ज़्यादा फ़िलिस्तीनी राष्ट्र और उसके बाद इस क्षेत्र के सभी राष्ट्र थे।


     उसके बाद क्षेत्रीय घटनाओं पर नज़र डालने से यह पता चलता है कि एक ज़ायोनी सरकार बनाने से पश्चिमियों और यहूदी कंपनियों के मालिकों का अस्ल और निकट मक़सद, पश्चिमी एशिया में अपनी उपस्थिति और स्थाई प्रभाव के लिए एक ठिकाना बनाना और इस इलाक़े के देशों और सरकारों के मामलों में हस्तक्षेप को संभव बनाने के लिए उनके निकट रहना था। यही वजह थी कि उन्होंने इस जाली व अतिग्रहणकारी शासन को शक्ति के विभिन्न साधनों, चाहे वह सैन्य साधन हों या असैनिक साधन, यहां तक कि उसे परमाणु हथियारों से भी लैस कर दिया नील नदी से फुरात नदी तक इस कैंसर के फोड़े को फैलाने की योजना तैयार कर ली।


    खेद की बात है कि अधिकांश अरब सरकारों ने आरंभिक प्रतिरोध के बाद जिनमें से कुछ का प्रतिरोध सराहनीय था, धीरे धीरे हथियार डाल दिये और विशेषकर इस मुद्दे के अभिभावक के रूप में अमरीका के मैदान में आने के बाद इन सरकारों ने अपने इस्लामी, मानवीय व राजनीतिक दायित्व के साथ ही साथ अरब स्वाभिमान व आत्मसम्मान को भी भुला दिया और निराधार आशाओं के पीछे दौड़ते हुए दुश्मन के उद्देश्यों की पूर्ति में सहयोग किया। कैम्प डेविड इस कड़वी सच्चाई का एक स्पष्ट उदाहरण है।  


          संघर्षरत गुट भी आरंभिक वर्षों में बलिदान और संघर्ष के बाद़, अतिग्रहणकारियों और उनके समर्थकों के साथ धीरे धीरे परिणाम हीन वार्ता की राह पर चल पड़े और उस राह को छोड़ दिया जो फिलिस्तीनी महत्वकांक्षा के गंतव्य तक जा सकती थी। अमरीका, पश्चिमी सरकारों और बेकार के अंतरराष्ट्रीय संगठनों से वार्ता, फिलिस्तीन का कड़वा और विफल अनुभव है। संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में ज़ैतून की डाल दिखाने का परिणाम, बेहद हानिकारक ओस्लो समझौते के अलावा कुछ नहीं निकला और वह भी यासिर अरफात के शिक्षाप्रद अंजाम पर खत्म हुआ।


    ईरान में इस्लामी क्रांति के उदय से, फिलिस्तीनियों के लिए संघर्ष का नया अध्याय शुरु हो गया। ईरान में शाही व्यवस्था के दौर में इसे अपना सुरक्षित ठिकाना समझने वाले ज़ायोनियों को खदेड़ने, ज़ायोनी शासन के गैर सरकारी दूतावास की इमारत को फिलिस्तीन के हवाले करने और तेल सप्लाई रोकने जैसे आरंभिक क़दमों से लेकर बड़े बड़े कामों और राजनीतिक गतिविधियों तक, सारे क़दम इस बात का कारण बने कि पूरे क्षेत्र में प्रतिरोध मोर्चे का गठन हो और इस तरह से इस मुद्दे के समाधन की आशा जाग उठे। प्रतिरोध मोर्चे के उदय के साथ ही ज़ायोनी शासन के लिए स्थिति कठिन से अधिक कठिन होती चली गयी और निश्चित रूप से भविष्य में और भी कठिन होगी, लेकिन इसके साथ ही साथ उसके समर्थकों की कोशिशें भी जिन में सब से ऊपर अमरीका है, बढ़ती गयीं। लेबनान में हिज़्बुल्लाह जैसा युवा, मोमिन और बलिदानी संगठन अस्तित्व में आया और फिलिस्तीन के भीतर हमास और जेहादे इस्लामी जैसे जोशीले संगठनों के बनने से न केवल ज़ायोनी शासन, बल्कि अमरीका और अन्य पश्चिमी शत्रु भी चिंता व बौखलाहट का शिकार हो गये। इस लिए उन्होंने ज़ायोनी शासन की हर प्रकार से मदद के बाद इलाक़े और अरब समाज के भीतर से अपने सहयोगी तलाश करने को भी अपने एजेन्डे में सर्वोपरि रखा। इन की भरपूर कोशिशों का परिणाम आज कुछ अरब शासकों और गद्दार अरब राजनीतिक व सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं के रवैए और बयानों में सब लोग देख सकते हैं।


    आज दोनों पक्षों की ओर से विभिन्न प्रकार की गतिविधियां, मैदान में नज़र आ रही हैं, इस अंतर के साथ कि प्रतिरोध मोर्चा अधिक शक्ति, अधिक आशा के साथ  दिन प्रतिदिन अधिक शक्तिशाली होकर आगे बढ़ रहा है और उसके विपरीत, अत्याचार व नास्तिकता व साम्राज्य का मोर्चा, दिन प्रतिदिन अधिक खोखला, अधिक निराश और अधिक कमज़ोर होता जा रहा है। इस दावे का सब से स्पष्ट प्रमाण यह है कि ज़ायोनी शासन की सेना जो कभी अजेय और बिजली की सी तेज़ सेना समझी जाती थी, और दो बड़े देशों की सेनाओं के आक्रमण को कुछ ही दिनों में विफल बना देती थी, आज लेबनान और गज़्ज़ा में जन सेना के सामने पीछे हटने और हार मानने पर मजबूर हो जाती है।  


    इन हालात में संघर्ष का मैदान बेहद खतरनाक और पल पल बदलने वाला है जिस पर हमेशा नज़र रखने की ज़रूरत है और यह संघर्ष, बहुत अधिक महत्वपूर्ण, निर्णायक और महत्वपूर्ण है। समीकरण और योजना बनाने में ज़रा सी गलती, भारी हानि का कारण बन जाएगी।


     


    इस आधार पर फिलिस्तीनी मुद्दे की चिंता रखने वाले सब लोगों को कुछ सिफारिश करना चाहूंगा।


    1  फिलिस्तीन की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष, ईश्वर की राह में किया जाने वाला जेहाद और सराहनीय इस्लामी दायित्व है। इस प्रकार के संघर्ष में जीत निश्चित है, क्योंकि संघर्षकर्ता मार दिये जाने की दशा में भी दो (विजय या शहादत)में से एक अच्छाई को पा लेता है। इसके अलावा भी, फिलिस्तीन का मुद्दा एक मानवीय मुद्दा है। दसियों लाख लोगों को उनके घरों, ज़मीनों और कारोबार को छोड़ कर भागने पर मजबूर करना वह भी हत्या व अपराध के ज़रिए, हर इन्सान की अंतरात्मा को दुखी व प्रभावित करता है और साहस व संकल्प की दशा में उसे संघर्ष पर प्रोत्साहित करता है। इस लिए इस मुद्दे को फिलिस्तीनी या अधिक से अधिक एक अरबी दायरे तक सीमित करना एक बहुत बड़ी गलती है।


    जो लोग, कुछ फिलिस्तीनी नेताओं या कुछ अरब देशों के शासकों द्वारा सांठ गांठ को इस इस्लामी व मानवीय मुद्दे से लापरवाही का लाइसेंस समझ बैठते हैं वह मामले को समझने में बहुत बड़ी गलती करते हैं बल्कि कभी कभी वह गद्दारी और फेर बदल जैसे अपराध में भी लिप्त हो जाते हैं।


    2 इस संघर्ष का उद्देश्य, सागर से लेकर नदी तक (भूमध्य सागर से जार्डन नदी तक)पूरे फिलिस्तीन की स्वतंत्रता और सभी फिलिस्तीनियों की स्वदेश वापसी है।


    इस संर्घष को फिलिस्तीन के एक क्षेत्र में एक सरकार के गठन तक सीमित करना वह भी उस रूप में जिसके लिए ज़ायोनी बेहद अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करते हैं, न सत्यप्रेम का चिन्ह है और न ही वास्तविकता पर आधारित है। सच्चाई यह है कि आज दसियों लाख फिलिस्तीनी, विचार व अनुभव व आत्मविश्वास के उस चरण पर पहुंच गये हैं कि इस महासंघर्ष को अपना संकल्प बनाएं और निश्चित रूप से ईश्वर की ओर से की जाने वाली सहायता का यक़ीन रखें जिसने कहा है कि और निश्चित रूप से अल्लाह उसकी ज़रूर मदद करता है जो उसकी मदद करता है और निश्चित रूप से अल्लाह शक्तिशाली और प्रतिष्ठित है। यक़ीनन पूरी दुनिया में फैले बहुत से मुसलमान, उनकी मदद करेंगे और उनसे एकजुटता दिखाएंगे इन्शाअल्लाह।


    3 हालांकि इस संघर्ष में हर जायज़ और क़ानूनी साधन का प्रयोग सही है जिसमें से एक अंतरराष्ट्रीय समर्थन भी है, लेकिन हमारा आग्रह है कि पश्चिमी सरकारों और विदित और ढंके छिपे रूप में उन पर निर्भर अंतर्राष्ट्रीय संगठनों पर भरोसा करने से बचना चाहिए, वे हर प्रभावशाली इस्लामी चीज़ के विरोधी हैं, उन्हें मानवाधिकारों और राष्ट्रों के अधिकारों की कोई परवाह नहीं है, वह स्वयं इस्लामी राष्ट्र को पहुंचने वाले बड़े बड़े नुक़सानों के ज़िम्मेदार हैं। आज दुनिया का कौन सा अंतर्राष्ट्रीय संगठन या कौन सी अपराधी सरकार, कई इस्लामी और अरब देशों में हो रही हत्याओं, जनंसहारों, युद्धों, बमबारी, थोपी गयी भुखमरी की ज़िम्मेदार है?


    आज दुनिया विभिन्न देशों में कोरोना से मरने वालों को गिन रही है लेकिन किसी ने नहीं पूछा और न कोई पूछता है कि जिन देशों में अमरीका और युरोप ने युद्ध की आग भड़काई है वहां लाखों लोगों की शहादत, क़ैदी बनाए जाने और ला पता होने वालों की ज़िम्मेदारी किस पर है? अफगानिस्तान, यमन, लीबिया, इराक़, सीरिया और अन्य देशों में इतने बेगुनाहों के खून का ज़िम्मेदार कौन है? फिलिस्तीन में इतने अपराधों, अतिग्रहणों और विनाशलीला का ज़िम्मेदार कौन है? क्यों कोई इस्लामी जगत में मारे जाने वाले इन दसियों लाख बच्चों, महिलाओं और पुरुषों की गिनती नहीं करता? क्यों कोई मुसलमानों के जनसंहार पर संवेदना प्रकट नहीं करता? क्यों दसियों लाख फिलिस्तीनी, सत्तर बरस से अपने घर बार से दूर रहें और विदेशों में जीवन व्यतीत करें? और क्यों मुसलमानों के पहले क़िब्ले बैतुल मुक़द्दस का अपमान किया जाए? तथाकथित संयुक्त राष्ट्र अपनी ज़िम्मेदारी पूरी नहीं करता और तथाकथित मानवाधिकार संस्थाएं मर चुकी हैं और बाल व महिलाधिकार के नारे में यमन व फिलिस्तीन के निर्दोष बच्चे और वहां की महिलाएं शामिल नहीं हैं।


     यह है पश्चिम की अत्याचारी शक्तियों और उनसे संबंधित अंतरराष्ट्रीय संगठनों की दशा। उन पर निर्भर और उनकी पिटठू क्षेत्र की कुछ सरकारों की दुर्दशा और तुच्छता को तो बयान करना भी कठिन है।


    इस लिए आत्म सम्मान रखने वाले धार्मिक मुस्लिम समाज को स्वयं और अपने बल पर भरोसा करके अपने ताक़तवर हाथ को आस्तीन से बाहर निकाल कर ईश्वर पर भरोसा करते हुए बाधाओं को पार कर लेना चाहिए।


    4  इस्लामी जगत के बुद्धिजीवियों और राजनेताओं की नज़र से एक और बात जो दूर नहीं रहना चाहिए वह प्रतिरोध मोर्चे में विवाद पैदा करने की अमरीका और ज़ायोनी शासन की कोशिशें हैं। सीरिया में गृहयुद्ध छेड़ना, यमन की सैन्य घेराबंदी और रात दिन जनसंहार, इराक़ में हत्या व विनाश और दाइश का जन्म तथा इलाक़े के अन्य देशों में इसी तरह की मिलती जुलती कई घटनाएं, सब की सब प्रतिरोध मोर्चे को व्यस्त करने और ज़ायोनी शासन को अवसर देने के हथकंडे हैं। कुछ इस्लामी देशों के शासक अज्ञानता में और कुछ जान बूझ कर दुश्मनों के इन हथकंडों का शिकार हो गये हैं। इस दुष्टतापूर्ण नीति पर अंकुश लगाना, पूरे इस्लामी जगत के स्वाभिमानी युवाओं की आकांक्षा है। सभी इस्लामी देशों विशेष कर अरब देशों के युवाओं को इमाम खुमैनी के इस कथन को नहीं भूलना चाहिए जिसमें उन्होंने कहा हैः जितना आक्रोश है उसे अमरीका और निश्चित रूप से ज़ायोनी दुश्मन पर प्रकट करो।


5 इलाक़े में ज़ायोनी शासन के अस्तित्व को सामान्य बात दर्शाना, अमरीका की एक मुख्य नीति है। अमरीकी एजेन्टों की भूमिका निभाने वाली इलाक़े की कुछ सरकारों ने आर्थिक संबंध बनाने जैसे कामों से उसकी भूमिका बनानी शुरु कर दी है। यह प्रयास पूरी तरह विफल और परिणामहीन रहेंगे। ज़ायोनी शासन, इस इलाक़े के लिए भयानक नासूर और पूरी तरह से हानिकारक है और निश्चित रूप से उसका अंत और पतन होगा और वह उन लोगों के लिए कलंक और अपमान की कालिख बनेगा जिन्होंने इस साम्राज्यवादी नीति के लिए अपने साधनों को प्रयोग करने की अनुमति दी। कुछ लोग अपने कामों का औचित्य दर्शाने के लिए यह तर्क पेश करते हैं कि इस्राईल इस क्षेत्र की सच्चाई है, वह यह याद नहीं रखते कि इस भयानक व हानिकारक सच्चाई के खिलाफ संघर्ष और उसके उन्मूलन की ज़रूरत है। आज कोरोना एक सच्चाई है और बुद्धि रखने वाले सभी लोग उससे संघर्ष को ज़रूरी समझते हैं। ज़ायोनिज़्म का पुराना वायरस भी निश्चित रूप से बहुत अधिक दिनों तक नहीं रहेगा और इस इलाक़े के युवाओं के संकल्प व आस्था व स्वाभिमान से जड़ से खत्म हो जाएगा।


    6  हमारी सब से मुख्य सिफारिश, संघर्ष को जारी रखना, मुजाहिद संगठनों को सुव्यवस्थित करना, एक दूसरे से उनका सहयोग और पूरे फिलिस्तीन में जेहाद को फैलाना है। सभी को चाहिए कि इस पवित्र संघर्ष में फिलिस्तीनियों की मदद करें। सभी को चाहिए कि फिलिस्तीनी संघर्षकर्ताओं के हाथों को मज़बूती से थामें। हमारे पास जो  कुछ होगा उससे हम गर्व के साथ मदद करेंगे। कभी हमने देखा कि फिलिस्तीनी संघर्ष कर्ता के पास धर्म, आत्म सम्मान और साहस है बस उसकी समस्या यह है कि उसके पास हथियार नहीं है। ईश्वर की कृपा और मार्गदर्शन से हमने कार्यक्रम तैयार किया और उसका परिणाम यह है कि फ़िलिस्तीन में शक्ति का समीकरण बदल गया और आज गज़्ज़ा ज़ायोनी दुश्मन के हमले के सामने खड़ा और विजयी हो सकता है। यह समीकरण का बदलाव, अवैध अधिकृत क्षेत्र कहे जाने वाले इलाक़े में फिलिस्तीनी मुद्दे को निर्णायक चरण से निकट कर देगा। इस क्षेत्र में फिलिस्तीनी प्रशासन पर भारी ज़िम्मेदारी है। बर्बर दुश्मन से शक्ति के साथ ठोस भाषा में ही बात की जा सकती है और आज इस शक्ति की यह योग्यता, फिलिस्तीन के बहादुर व डट जाने वाले राष्ट्र में पायी जाती है। आज फिलिस्तीनी युवा, अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के प्यासे हैं। फिलिस्तीन में हमास और इस्लामी जेहाद और लेबनान में हिज़्बुल्लाह ने सभी के लिए सारे बहाने खत्म कर दिये हैं। दुनिया भूली नहीं है और न भूलेगी वह दिन जब ज़ायोनी सेना ने लेबनान की सीमाओं को पार कर लिया और बैरुत तक पहुंच गयी थी और न ही उस दिन को भूलेगी जब एरियल शेरून नामक अपराधी हत्यारे ने सबरा व शतीला में खून की होली खेली थी।  इसी तरह दुनिया यह भी न भूली है न भूलेगी कि किस तरह से  इसी  सेना को, हिज़्बुल्लाह के प्रभावशाली हमलों की वजह से, अनगिनत सैनिकों को गवांने के बाद हार मानते हुए पीछे हटने और युद्ध विराम के लिए गिड़गिड़ाने के अलावा कोई राह सुझायी न दी। यह है शक्ति प्रदर्शन और मज़बूत रुख। उस अमुक युरोपीय सरकार की बात ही न करें जो सद्दाम सरकार को रासायनिक हथियार बेचने की वजह से हमेशा लज्जित रहने के बजाए संघर्षकर्ता व गौरवशाली हिज़्बुल्लाह को गैर क़ानूनी घोषित करती है। गैर कानूनी तो अमरीका जैसी सरकार है जो दाइश को बनाती है और वह युरोपीय सरकार गैर कानूनी है जिसके बनाए हुए रासायनिक हथियारों से ईरान के “बाने” और इराक के “हलबचे“ जैसे इलाकों में हज़ारों लोग मौत की नींद सो जाते हैं।


    7 आखरी बात यह है कि फ़िलिस्तीन, फ़िलिस्तीनियों का है और उनकी इच्छा से उसका संचालन होना चाहिए। फिलिस्तीन के सभी धर्मों के अनुयाइयों और जातियों की भागीदारी से जनमत संग्रह जिसे हम लगभग दो दशकों से पेश कर रहे हैं, एकमात्र परिणाम है जिसे फिलिस्तीन की वर्तमान और भावी चुनौतियों से मुकाबले के लिए पेश किया जा सकता है। इस सुझाव से पता चलता है कि यहूदी विरोध का दावा, जिस पर पश्चिमी खूब हंगामा मचाते हैं, पूरी तरह से निराधार है। इस सुझाव में फिलिस्तीन के यहूदी, ईसाई और मुसलमान नागरिक, एक दूसरे के साथ मिल कर एक जनमत संग्रह में भाग लेंगे और फिलिस्तीन की राजनीतिक व्यवस्था का निर्धारण करेंगे। जिसे चीज़ को हर हालत में खत्म होना है वह ज़ायोनी शासन है और ज़ायोनिज़्म स्वयं ही यहूदी धर्म में फेरबदल का नतीजा और उससे बिल्कुल अलग चीज़ है। अंत में हम शैख़ अहमद यासीन, फत्ही शेक़ाक़ी और सैयद अब्बास मूसवी जैसे कुद्स के शहीदों से लेकर इस्लाम के महान जनरल और प्रतिरोध के कभी न भुलाए जाने वाले योद्धा, शहीद क़ासिम सुलैमानी और इराक़ के महान संघर्षकर्ता शहीद अबू मेहदी अलमुहंदिस और क़ुद्स के अन्य शहीदों को श्रद्धाजंलि अर्पित करते हैं और महान इमाम खुमैनी की आत्मा को सलाम करते हैं जिन्होंने सम्मान व संघर्ष की राह खोली और इसी तरह हम अपने दिवंगत भाई हुसैन शैखुल इस्लाम के लिए ईश्वरीय कृपा की दुआ करते हैं जिन्हों ने बरसों तक इस राह में संघर्ष किया।


    वस्सलामो अलैकुल व रहमतुल्लाह  


     


 


| شناسه مطلب: 100522







نظرات کاربران